Wednesday, February 22, 2017

आज फिर लिखने का ख्याल आया

कल यूँ ही गुलज़ार की नज़्में सुनने का मन हुआ।ये गुलज़ार के लेखन की जादूगरी ही है कि बेजान से शब्दों में जान फूँक दे।वे छोटी से छोटी बातों को इतने विस्तार से इतने करीने से कहते हैं कि दिल को छू जाती है।कल्पना शक्ति दौड़ने लगती है और अल्फ़ाज़ों के जुगुनू से जगमगा उठते है वे पन्ने जहाँ आपके कलम की स्याही पड़ती है।उस पर भी उनके बोलने का अंदाज़ दिल को छू जाता है,ऐसे में ख्याल आता है कुछ लिखने का,हालाँकि उनके जैसा क्या ही लिखूँगा पर कोशिश तो होती रहनी चाइए।शायद कुछ जुगनू हमारे पन्नों पर भी आ जाएँ.......


आज फिर लिखने का ख्याल आया
जाने क्यों फिर तेरा नाम आया
अल्मारी से मैंने वो पुराना प्रेम पत्र निकाला
हमारे प्रेम की तरह उसे भी अधूरा पाया
धूल शायद पड़ी थी उन खतों में
चित्र-गूगल आभार 
उजले गुज़िश्ता का हमने धुंधला मुस्तक़बिल पाया

बो दिए थे दिल की ज़मीन में यादें कई
अरसा हो गया न उसमे खाद न पानी डाला
आज देखा तो एक पौधा पाया
आज फिर जज़्बातों को जगा पाया

वो बागीचा जहाँ हमने कितना वक़्त बिताया
वो पगडंडी जो हमे पहचानने लगी थी
आज फिर हमने उन फूलों को निहारा
जायज़ है महक थी,पर तुझसा महकता न पाया

याद है जब हम बारिश में भींग रहे थे
तुम्हारी जुल्फों से रिश रहे थे वे शरारती बूँदें
और आकर टिक जाते थे तुम्हारे रुखसार पर
तुम्हारा चेहरा मानो कैनवास सा बना लिया था
तुम उन्हें अपने दुप्पटे से पोंछते रही और
मुझे उनके तुम्हे छूने का अन्दाज़ पसंद आया

जो बैठा रहता हूँ बालकनी में तो सोचता हूँ
जो आहट हो,उस बेगैरत गली को तकता हूँ
जानता हूँ फ़िज़ूल है,पर फिर भी इंतज़ार आया
अरसा हुआ सुकून को,न ही इत्मिनान आया

भूलना होता तो शायद भूल ही जाते
हालाँकि कोशिश-ए-पैहम हमने कम नहीं की
पर जब भी की तेरा मासूम सा चेहरा जेहन में आया
और हर बार हमने खुद को कोशिश-ए-नाकाम पाया
और बस यूँ ही आज फिर लिखने का ख्याल आया
जाने क्यूँ फिर तेरा नाम आया।
©युगेश
Rate this posting:
{[['']]}

Wednesday, February 15, 2017

युवा और गाँधी

मैं खोया था बैठा उदास
निज आ बैठे गाँधी सुभाष
इस मन कौतुहल और आँधी को
कैसे समझाऊं गाँधी को
शायद समझे वो महापुरुष
चेहरे पर थी मुस्कान दुरुस्त
सुभाष समझाओ युवा साथी को
हमने देखा भांति भांति को
याद है प्यारा खुदीराम
चित्र -गूगल आभार 
और अमर माँ को उसका प्रणाम
जो जलते इस यौवन में
रोष भरा जिसके क्रन्दन में
जो पथ न धूमिल होने देता है
लोहा तब तपकर कुंदन होता है
विकृतियाँ भरी धरातल पर
पर हमने खुद को सहज रखा
भारत माँ की भूमि को
अमर सपूतों ने सींचा
जो बातें तुमको भटकाती है
और चमक तुम्हे ललचाती है
याद रखो माँ की ख्वाईश
वो कितना तुमको चाहती है
जो विषम होती परिस्तिथी तो
ह्रदय तुम विशाल करो
जो हारे मन ठोकर से तो
किञ्चित और प्रयास करो
सुलझेंगे सारे अनसुलझे
नवचेतना से प्रहार करो
हमपर भले न सही
पर निज शक्ति पर विश्वास करो
सफलता असफलता को छोड़ो
करने दो लोगों को बातें
प्रयास वो पहली सीढ़ी है
वही मनुज कुछ कर जाते
तुम मुझे खून दो,मैं तुम्हे आज़ादी दूँगा
बात सहजता से कर देखो
इतने हाँथ उठे थे
उम्मीद की लौ जलाकर तो देखो
प्रकाश सा फैला आँखों में
मैंने हाँथ बढ़ाकर देखा
मिलना हुआ जो उनसे
शायद सपनों का धोखा
ज्ञान हुआ तब जा मुझको
भ्रम का अब न कोई साया था
इस भ्रमित युवा मन में
नवचेतना का प्रवाह आया था/
Rate this posting:
{[['']]}